चोरी: सिर्फ वस्तु नहीं, भावनाओं का नुकसान

चोरी: सिर्फ वस्तु नहीं, भावनाओं का नुकसान

चोरी: सिर्फ वस्तु नहीं, भावनाओं का नुकसान

बात सिर्फ वस्तु की नहीं है, बात तो चोरी की वस्तु की भी नहीं है। हम सभी का जीवन किसी भी वस्तु के होने या न होने पर निर्भर नहीं हो सकता है। प्राणियों का जीवन शुद्ध प्राकृतिक है। प्राणी जीवन बाजार की वस्तुओं के अधीन नहीं है, प्राणी जीवन तो प्रकृति के अधीन है। और मानवीय जीवन तो भावनाओं का समूह है। भावनाओं, विमर्शों, विचारों के आपसी समन्वय, उनके आपसी  द्वंद्व से मानवीय जीवन चलता है। एक मोबाइल या एक मोटरसाइकिल किसी भी व्यक्ति के आत्मसम्मान के आगे कुछ भी नहीं है। वो सिर्फ एक वस्तु है । मोबाइल हो या मोटरसाइकिल हो या कोई अन्य भी कीमती सामान हो, कोई भी सामान हो वो जब चोरी हो भी जाता है तो भी जीवन चलता रहता है। कुछ बदलाव के साथ ही, कुछ नुकसान के साथ ही पर जीवन चलता रहता है। कष्ट होता है, आर्थिक चोट भी पहुंचती है। एक समय मेरा मोबाइल चोरी हुआ था तो लगता था जैसे अब कुछ नहीं बचा। उस देश काल परिस्थिति में वो सब कुछ था। मोबाइल या मोटरसाइकिल के चोरी होने से हमें बृहद आर्थिक नुकसान तो होता है, वाणिज्यिक हानि भी होती है पर फिर भी जीवन चलता रहता है। जब गहराई में उतर कर देखा तो समझ आया कि ये बात किसी सामान यथा मोबाइल और मोटरसाइकिल की नहीं है। बात है मानव जीवन के लिए बहुमूल्य भावनाओं की, श्रद्धा की, विश्वास की, आत्मबल की। जब हमारा कोई सामान चोरी होता है, या खो जाता है, या लूट लिया जाता है। तो हम विचलित हो जाते हैं।

हमें खराब लगता है। एक नकारात्मक विचार मन में आने लगता है। अपने आसपास के समाज के प्रति कुंठा महसूस होती है, व्यवस्था के प्रति क्रोध आने लगता है। हमें उस वस्तु से होने वाली वाणिज्यिक हानि से अधिक उस वस्तु से अपने लगाव, अपनी भावनाओं के आहत होने का कष्ट होता है। कुछ भी हो, खोने का कष्ट बहुत भीषण होता है। आप अपने व्यक्तिगत  संबंध खोएँ या अपना सामान , अपना मोबाइल, अपनी मोटरसाइकिल खोयें। इन सब चीज़ों की जब चोरी हो जाए तो हमें सबसे पहले अपनी निजता के खण्डन का भाव तत्पश्चात अपने आसपास असुरक्षा और उन्माद का भय उत्पन्न होता है। उस वस्तु के मूल्य से कहीं ज्यादा उससे जुड़ी अपनी भावनाओं के टूटने का कष्ट होता है। जो हमारा अपना है उसके जाने का कष्ट। जिसके साथ समय व्यतीत किया उसके गुजरने का कष्ट । क्योंकि जीवन भावनाओं का समूह है। संबंधों में समाहित भावना। व्यक्ति का व्यक्ति से, व्यक्ति का प्रकृति से, व्यक्ति का वस्तुओं से, हर किसी से हमारा संवाद होता है। इसलिए हमें अपने अंदर कुछ खाली खाली सा लगने लगता है, जीवन में संवादहीनता लगने लगती है। लगता है जैसे कहीं कुछ मिल नहीं रहा है। अपनी संपूर्णता में से जैसे कुछ कम लगने  लगता है। उस वस्तु से जुड़ी अपनी स्मृतियां, उससे लगाव, भावनाएं हमें मनोवैज्ञानिक रूप से आहत करती हैं। हमारे मनोस्तर पर चोट लगती है। हमें लगता है, कैसे कोई हमारी कोई वस्तु चोरी कर सकता है।  चोरी हमें अपनी निजता का खण्डन लगती है। कैसे कोई मेरा मोबाइल चोरी कर सकता है। कैसे कोई मेरे पीछे से मेरी मोटरसाइकिल लेके भाग सकता है। ये सब विचार हमारे अंदर हमारे समाज के ही लोगों के प्रति घृणा उत्पन्न करते हैं। चोरी होने से भावनाओं के स्तर पर लगने वाली चोट हमें अंदर से कमजोर करती है। आत्म विश्वास डगमगाने लगता है। याद पड़ता है आज से लगभग 14 साल पहले 2008 में भोपाल से घर (ललितपुर) जाने वाली ट्रेन में बैठने वाला था। भीड़ बहुत थी। कंधे पर पुस्तकों का बल था तो हाथों में परीक्षा का प्रश्नपत्र था। प्रश्न मस्तिष्क में थे बस उनके उत्तर कौंध रहे थे। A सही होगा या B या C या D। मैने तो B लगाया। B तो पक्का गलत या पक्का सही। बस इसी उलझन में विदेशी ताकतों के परिधानों में जांघें जकड़ी हुई थी।

न समय का होश था, न स्थान का। बस सही विकल्प कौन सा है इसी उधेड़बुन में अपने भविष्य के सपने बुन रहा था। ट्रेन दक्षिण एक्सप्रेस थी पर जा उत्तर दिशा में रही थी, सही उत्तर में। जाना भी उसी के पास  चाहता था, सही उत्तर के पास। चार दिशाओं में एक दिशा जैसे सही, वैसे ही चार उत्तरों में एक सही उत्तर ढूंढ रहा था। ट्रेन जैसे प्रश्न थी और उसकी दिशा मेरे उत्तर। जैसे जैसे ट्रेन प्लेटफार्म के पास आ रही थी तो मस्तिष्क  भी सही उत्तर तक पहुंच रहा था। इसी हड़बड़ाहट में किसी ने जेब से धीरे से छोटा सा मोबाइल निकल लिया था। एक अजीब सी छटपटाहट हुई थी उस दिन जैसे दो चार मिनट तक सुन्न रह गया था। भय का अहसास हुआ लगा जैसे कोई पीछा कर रहा है क्या। परीक्षा , प्रश्न और उत्तर की सुनहरी दुनिया से निकल अब सुरक्षा, भय और मोबाइल की विचलित करने वाली दुनिया में आ गया था। 

रेलवे पुलिस की तत्परता से वही मोबाइल 6 माह बाद जब वापस मिला था। तब तक उस मोबाइल का भौतिक महत्व शेष नहीं था। लेकिन आनंद आया था। वह पुरानी वस्तु तो और पुरानी हो गई थी लेकिन उसे देख कर उससे जुड़ी स्मृतियां तुरंत नवीन हो गईं थी। व्यवस्था पर विश्वास बढ़ा था। स्वयं का टूटा आत्मविश्वास सशक्त हुआ था। कुछ खोने के बाद उसे पुनः पाने का अपना एक अलग आनंद है। जो स्वयं से  टूटा हो उसके पुनः जुड़ जाने से उत्पन्न आनंद। टूटे व्यक्ति के उठ खड़े होने में आने वाला आनंद।

जब हमारा चोरी हुआ सामान वापस मिलता है तो हमारे अंदर नवीनता आती है, हमारा आत्मबल बढ़ता है, सशक्त  और संकल्पित नागरिक का निर्माण होता है, व्यवस्था के प्रति श्रद्धा बढ़ती है , सामाजिक सुरक्षा की भावना ठोस होती है, अपने आसपास सामाजिक सौहार्द बढ़ता है।

आत्मविश्वासी और संकल्पित  नागरिक, सशक्त और स्वस्थ समाज, संवेदनशील और समर्पित व्यवस्था  के समन्वय से ही भारत जैसा प्रचंड राष्ट्र हमेशा अखंड रहेगा। 

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