"शरदोत्सव- शरद ऋतु की उत्सवबेला - शारदीय नवरात्र से महापर्व छठ की यात्रा "

"शरदोत्सव- शरद ऋतु की उत्सवबेला - शारदीय नवरात्र से महापर्व छठ की यात्रा "

"शरदोत्सव- शरद ऋतु की उत्सवबेला - शारदीय नवरात्र से महापर्व छठ की यात्रा "

भारत ऋतुओं का देश है। एक, दो, या तीन नहीं पूरी छह ऋतुओं का देश है। यहां की विविधता इन्हीं ऋतुओं की दी हुई है। इसलिए अपनी विविधता को जीवंत रखने के लिए हम इन्हीं ऋतुओं की पूजा करते हैं। ऋतुएं हमारी सामाजिक जीवन पद्धति को दर्शाती हैं। हम हर ऋतु में अलग अलग प्रकार के उत्सव मनाते हैं, पूजा करते हैं। ऋतुओं के विभिन्न उत्सवों में अलग अलग अर्थ निहित होते हैं। जैसे बसंत ज्ञानोत्सव की ऋतु है और शरद शक्ति का आराधना-काल है। बसंत ज्ञान का प्रसार है, ऊर्जा का प्रसार है। शरद उत्सव है शीतलता का, आत्म साक्षात्कार का, ऊर्जा के केंद्रीयकरण का, दृढ़ एकाग्रता का, चेतना के प्रदीप्त होने का। शारदीय नवरात्र से लेकर विजयदशमी तक और चंद्र की पूर्णआभा के पूर्णिमोत्सव से कार्तिकमास- कृष्णपक्ष की अमावस्या पर प्रभु राम की अयोध्या वापसी के दीपोत्सव एवम सूर्योपासना के शीर्ष लोक महापर्व छठ तक की प्रचंड उत्सवबेला शरद ऋतु की अनुपम काया है।


 
शरद शीत के आगमन की आहट है। शरद शांत और शीतल होने का नाम है, चंद्र जैसी शांति। पेड़, पौधे,वनस्पति,पक्षी, जीव जंतु से लेकर मानव प्राण भी शरद में शीतल होने लगते हैं। बसंत यदि वर्ष रूपी दिन का मंगल ब्रह्ममुहुर्त है तो शरद उस अमूर्त दिन की वैभवशाली संध्या है। बसंत उस ब्रह्ममुहूर्त में जागने और चेतना के बाह्य होने का समय है तो शरद मनोहर प्रत्यूषा में रमने का समय है, चेतना के अंतर्मुखी होने का समय है, चिंतन मनन करने का समय है, शरद शांत मन से आत्मावलोकन का समय है। यही ब्रह्मांड का ऊर्जा चक्र है। बसंत में अनंत ऊर्जा का बाह्य प्रसार और शरद में ऊर्जा का अंतरिक संकुचन। यही प्राकृतिक चक्र है। ऊर्जा का संकुचन होकर एक अंड (बीज) में केंद्रित होना और फिर इस बीज से ऊर्जा का प्रसार होकर जीवन का प्रखर होना। इस चक्र का न प्रारंभ है और न अंत है। सूक्ष्मातिसूक्ष्म परमाणु के रूप में अनंत ऊर्जा केन्द्रित होती है। जैसे एक बीज में पूरे जीवन के प्राण केन्द्रित रहते हैं। उसी ऊर्जा से जीवन का विस्तार होता है, जीवन व्यापक होता है, मुखर होता रहता है। हम बाह्य जगत  में अपनी ऊर्जा के प्रसारण से प्रकाशित होते है और अंतरमुखी होने पर हम अपनी ऊर्जा का संकुचन कर उसे केंद्रित कर ओजस्वी होते हैं।शरद प्राणों के अपनी सूक्ष्मता में लौटने का समय है। आत्म अंतस् के गहन अवलोकन से अपनी समस्त ऊर्जा को दृष्टा भाव से देखने का समय है। शरद में हमारी प्रकृति आने वाले तीक्ष्ण शीत के लिए तैयार होने लगती है। आने वाली शीत को सहने के लिए आवश्यक ऊष्मा शरद में प्राण संकुचन से एकत्रित होने लगती है। बसंत और शरद ये दो सनातनी ऋतुएं भारत की आराधना-परंपरा का चरमोत्कर्ष हैं।  

 

शारदीय नवरात्रि से लेकर महापर्व छठ तक पूरे भारतीय मानस  पर शरद ऋतु का प्रभाव रहता है। शरद से खरीफ की फसल की कटाई शुरू होती है, नवरात्र का उत्सव  होता है, शरद पूर्णिमा पर चंद्र रस की अमृतवर्षा होती है, हम सब के अहंकार के प्रतीक रावण का अंत होता है, प्रभु राम की विजय होती है, राजा राम अयोध्या  वापस आते हैं, मां पार्वती की स्कंद रूपी अवतार छठी मईया लोक अनुशासन के दिव्य दर्शन कराती हैं, धरती को शक्ति देने वाले भगवान सूर्य को लोक संस्कृति छठ का अर्घ्य अर्पण करती है। चार दिनों का तप-पर्व छठ शुद्धता और अनुशासन की कसौटी पर मानव को कस देता है। शरद का दर्शन प्रकृति की शक्ति के आसपास ही घूमता है। नव दुर्गा पूजन से लेकर दीपोत्सव पर महा लक्ष्मी की साधना से छठी मईया तक पूरी शरद ऋतु व्यक्ति की अंतरोन्मुखी यात्रा का समय होता है,समस्त प्रकृति को अपने अंदर देखने का समय होता है। 

मां प्रकृति की उपासना हम हर ऋतु में 9 दिन के लिए नवरात्र के रूप में करते है। उसमें भी सर्वश्रेष्ठ शारदीय और चैत्र नवरात्र। शारदीय नवरात्र राम की शक्ति साधना है। निराला के शब्दों में जब राम को बोध होता है कि यह नहीं रहा नर-वानर का राक्षस से रण,उतरीं पा महाशक्ति रावण से आमन्त्रण। तब सेनानायक वृद्ध श्रेष्ठ जामवंत राम को आराधन का उत्तर द्रढ़ आराधना से देने की जाग्रति देते हैं। राम युद्ध त्याग कर 9 दिन शक्ति की सनातन तपस्या करते हैं। जीवन के सभी युद्धों में हमें भी शक्ति को जाग्रत करना चाहिए। शक्ति के अनंत दर्शन हैं। वो देवी भी हैं। वो अभ्यास भी हैं। वो अनुशासन भी हैं। वो एकाग्रता भी हैं। वो स्व चेतना का आभास भी हैं। वो मां का अपनी संतान के प्रति अनंत प्रेम भी हैं। राम युद्ध क्षेत्र में थे। देवी स्थान से दूर थे। इसीलिए जामवंत प्रभु राम से कहते हैं कि शक्ति की करो मौलिक कल्पना ,करो पूजन, छोड़ दो समर जब तक न सिद्धि हो, रघुनंदन। हम भी अपने अपने अंतस में शक्ति की मौलिक कल्पना अपने अपने तरीके से कर सकते हैं। जामवंत राम को स्पष्ट संदेश देते हैं कि अभी आपके युद्ध लड़ने का समय नहीं आया है। पहले शक्ति की सिद्धि करें प्रभु। राम ने विजयदशमी के पूर्व नवमी तक शक्ति की मौलिक कल्पना की और रावण को परास्त किया। हम भी अभ्यास से, अध्ययन से, अनुशासन से, आराधना से, कल्पना से, चिंतन मनन से, तपस्या से शक्ति को सिद्ध करके अपने अंदर की रावण रूपी प्रवृत्तियों पर विजय पा सकते हैं।

राम की विजय का चंद्र शरद की पूर्णिमा पर नभ के ललाट पर प्रकाशित होता है। शरद पूर्णिमा का यह अमृतवान चंद्र हमारी पृथ्वी और चंद्र के बीच के समीकरण को दर्शाता है। सौर ऊर्जा पृथ्वी और चंद्र दोनों को संचालित करती है। शरद पूर्णिमा चंद्र का पृथ्वी के लिए तर्पण है। चंद्र पृथ्वी का ही उपग्रह है। पहले पृथ्वी का ही अंग था और आज कई प्रकाश वर्ष दूर होकर भी पृथ्वी के संग संग चलता है। चंद्र के लिए पृथ्वी पूर्वज हैं। शरद पूर्णिमा का चंद्र अपनी पृथ्वी के लिए वर्ष में एक बार पूरे मनोयोग से प्रकाश का तर्पण करता है। वही प्रकाश पृथ्वी के लिए अमृतसदृश होता है। जैसे पितृपक्ष में हम अपने पूर्वजों के लिए जल, अन्न का तर्पण करते हैं वो उनके लिए अमृत समान होता है। यदि आज भी चंद्र ने अपने पूर्वज पृथ्वी को नहीं छोड़ा तो हमें भी अपने पूर्वजों का त्याग नहीं करना है। लगातार उनका तर्पण करते रहना है। चंद्र पृथ्वी को प्रकाश का तर्पण करता है तो पृथ्वी चंद्र को अपनी आकर्षणक्षमता से सौरमंडल में स्थिरता प्रदान करती है, पृथ्वी चंद्र को शक्ति देती है और चंद्र की किरणें पृथ्वी पर शीतल ओज फैलाती है। सबको शांत होने का संदेश देती हैं।  उलझन, समस्या, अनावश्यक हलचल को हल्का कर देती है। हमारे स्पंदन को स्थिरता प्रदान करती है। शरद पूर्णिमा का चंद्र एक परावर्तक की तरह कार्य करता है। सूर्य की भीषण ज्वाला को अपने अंदर समाहित कर उसे परिवर्तित कर उसके शीतल तत्वों को हमें प्रदान करता है। शरद की शीतल शांति हमारे शरीर को जड़ - जाड़ों को झेलने के लिए तैयार करती है। शरद पूर्णिमा का चंद्र रात की गहन काली रात में भी जीवन में उजाले का संदेश लाती है। 

भगवान भास्कर और महापर्व छठ 

शरद की प्रकृति के इन सब रूपों में सबसे अधिक प्रभावित करने वाले रूप के दर्शन का वर्णन करना हो तो वह दर्शन महापर्व छठ का है। भारतीय संस्कृति को अक्षुण्ण रखने में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार, देश-विदेश में बसे-पलायित भारतवंशियों और यहाँ के निवासियों का योगदान अप्रतिम है। भारतवर्ष युगों-युगों से प्रकृति को अपना प्रथम ईश्वर मानता रहा है। प्रकृति के प्रत्येक कण में सनातन ईश्वर देखना भारतीय संस्कृति है। सूर्य, चंद्र, नवग्रह, नदियाँ, पर्वत, पहाड़, पत्थर, पठार और हर चेतन अस्तित्व में ईश्वर चाहे वह गौमाता हो या वानररूपी भगवान या वराह अवतार या प्रभु गणेश का आसन चूहा अथवा मत्स्य अवतार, उलूक, गरुड़ हों या  तरह-तरह के पक्षी, पेड़, पौधे हमने सबमें ईश्वर का प्रतिबिंब देखा है। हमने अपनी संस्कृति में हर एक अस्तित्व को अपने से उच्चतर और सहजीवन के लिए आवश्यक माना है। हमारी संस्कृति में हमारी सहज दीक्षा यही रही हमने कभी मनुष्य प्राण को अन्य प्राणों से श्रेष्ठ मानने की भूल कभी नहीं की। हमने जड़-चेतन सबको प्रेम किया है। अपनी चेतना के स्तर पर विद्यमान अस्तित्व को स्वीकार किया और चेतना के अन्य स्तरों पर स्थित तत्वों यदा पूर्वजों, पुरखों, बोधिसत्व, इंद्र सबको हमने स्वीकार किया एवं अंगीकार भी किया। अनंत वर्षों से चली आ रही इस परंपरा के भौतिक निर्वाह में समस्त धरती पर जीवन के जनक भगवान भास्कर जो ब्रह्मांड के लगातार जलने,अथक परिश्रम करने, निरंतर क्रियाशील रहने वाले तत्व हैं उन आदि सूर्यदेव को कभी नहीं छोड़ने का संकल्प दिखता है। उस महान दृश्य की कल्पना कीजिए जब पूरी संस्कृति अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य  देती है। जब अपने आराध्य भगवान भास्कर को मनुजता साहस दे रही होती है। वो डूबते भास्कर को अर्घ्य देती है। प्रणाम करती है,शक्ति देती है। भास्कर भगवान है। ईश्वर की कल्पना है। और अपने भक्तों से अपने अस्तगामी पथ  पर मिलने वाली इस अतुल्य मानवीय शक्ति को देख कर जरूर भावुक होते होंगे। अनवरत बहती नदियां भी इस अदभुत  मानवीय शक्ति को निहारती होंगी।

नदियों से मिले जल और सूर्य से मिली किरणों ने हमेशा से मानवता को पाला और पोषा है। बड़ी बड़ी सभ्यताएं और संस्कृतियां नदियों और सूर्य के परस्पर समन्वय से ही विकसित हो पाई है। ये हमारी संस्कृति का दर्शन है कि हम कृतज्ञ है उस अस्त होते रवि के और उदय होते भास्कर के और उस कृतज्ञता को छठ महापर्व के रूप में प्रकट भी कर रहे हैं। छठ भारतीय संस्कृति के कृतज्ञता दर्शाने के दर्शन का भी नाम है।जरा सोचिए जब एक साथ हम सभी सूर्य को अर्घ्य देंगे तो कितनी विशाल सामूहिक कृतज्ञता प्रकट होगी। पूरी की पूरी एक सभ्यता और संस्कृति नतमस्तक होगी इन प्राकृतिक स्रोतों के सामने। हम बता रहे होंगे कि आप हैं तो हम हैं। नदियां हैं तो हम हैं। सूर्य हैं तो हम हैं। जलाशय हैं तो हम हैं। इस सामूहिक कृतज्ञता को दर्शाना ही हमारा उत्सव है। ये कृतज्ञता हम अपने मेहनत से उगाए केले, गन्ने, सुधरी और मन से बनाए खरना और ठेकुआ के लोकमन के माध्यम से दर्शा रहे होंगे। छठी मईया का आह्वान-पूजन तथा भगवान भास्कर को निरोगी जीवन का श्रेय देने घाटों पर उमड़ता जनसमूह इस बात की पुष्टि करता है कि आज भी हमारे प्राकृतिक वैद्यगुरु भगवान भास्कर सूर्यदेव ही हैं। भारत के लाखों करोड़ों लोग आज भी अपने नानाविध रोगों से लड़ने के लिए सूर्य देव की शरण में ही जाते हैं। 

यही शरद के अनंत रंग हैं। छठ के सूर्य हमें गति देते  हैं तो शरद पूर्णिम के चंद्र हमें स्थिर करते हैं। सूर्य इड़ा नाड़ी को जगाते हैं तो चंद्र पिंगल नाड़ी को क्रियाशील करते हैं। जीवन गति और स्थिरता का मधुर संगम है। जीवन इड़ा और पिंगल दोनों का समन्वय है। पृथ्वी पर जीवन सूर्य और चंद्र दोनों के प्रभाव से संचालित हो रहा है। हमें यदि सूर्य सा अधिक परिश्रम करना है तो उतनी ही तीव्रता से चंद्र सा शांत और शीतल होना है। सूर्य और चंद्र हमारे जीवन के दो ऐसे पहलू है जिनका सीधा प्रभाव हमारे अस्तित्व, हमारी सामाजिक जीवन पद्धति, हमारे उत्सवों, पर प्रत्यक्ष रूप से दिखता हैं। हमारे जीवन को प्रभावित तो  ब्रह्मांड का हर कण करता है शायद इसीलिए हम पूरे जीवन प्रत्येक कण के प्रति श्रद्धा अर्पित करते हैं। यही जीवन का श्रेयस हैं।

भगवान भास्कर समस्त संसार का कल्याण करें।
छठ पूजा की अनंत शुभकामनाएं।

सप्रेम- सस्नेह
विनय तिवारी
IPS

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